खराब शिक्षा पद्धति


खराब शिक्षा पद्धति

                        भारत में जो शिक्षा पद्धति प्रचलित है, उसके कई पक्षों में सुधार की आवश्यकता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक वृहत् जनसमूह को शिक्षित करने का दायित्व है। साधन और संसाधन बहुत सीमित हैं, परिस्थितियाँ भी अनुकूल नहीं हैं, फिर भी हम लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील हैं। फिर भी हम दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ें तो इस निराशाजनक स्थिति से उभर सकते हैं। अगर कुछ चुनौतियों की बात करें तो -






'सबके लिए शिक्षा' की सुविधा उपलब्ध करवाना

                                                                    शिक्षित व्यक्ति से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वह इस लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग प्रदान करे। 'हर एक सिखाता है एक' का नारा इस दिशा में सफलता दिला सकता है। इसके लिए सरकारी तंत्र के साथ स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों को भी जोड़ना होगा। विद्यालयों में संख्यात्मक नामांकन की वृद्धि की बजाय न्यूनतम अधिगम स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
   स्वतंत्रता के बाद हमने सबके लिए शिक्षा प्राप्ति पर तो ध्यान दिया, पर सबके लिए समान गुणवत्ता वाली शिक्षा का लक्ष्य अभी भी कोसों दूर है। निजी और सरकारी स्कूलों में उपलब्ध संसाधन और सुविधाओं और प्रदान की जा रही शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक अंतर मौजूद है। भारत देश में यह संभव है तो नहीं कि सबको निजी स्कूलों जैसी सुविधाओं उपलब्ध करवाई जा सकती है, लेकिन इस दिशा में प्रयास तो निश्चित होना चाहिए कि सभी को समान शिक्षा के अन्तर्गत अच्छी शिक्षा को कम खर्चीला कैसे बनाया जाए। अगर हम यह हासिल करने जा रहे हैं कि सबके लिए शिक्षा हो तो यह लक्ष्य परम्परागत संस्थागत शिक्षा पद्धति के माध्यम से प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए शिक्षा के अन्य विकल्प जन सामान्य को उपलब्ध करवाना होगा। 

शिक्षा में तकनीकी का उपयोग 

                                      शिक्षा में तकनीकी का उपयोग अत्यधिक हो रहा है, किंतु इन तकनीकी साधनों को शिक्षक का विकल्प न मानकर सहयोगी मानकर प्रयोग करने का लक्ष्य हो इसे मैं दुर्भाग्यपूर्ण ही मानती हूं कि शिक्षक का अधिकांश समय सूचनाओं को छात्रों तक पहुंचाने में लग जाता है। अर्थात् पढ़े जाने के अलावा बहुत सारे अन्य कार्य प्रॉक्सी, ऑफिशियल वर्क, इंट्रा इंटर स्कूल इवेंट्स, पेपर चेकिंग, पेपर सेटिंग, काउंसलिंग, रेमेडियल क्लासेस, प्लानर्स, डिसिप्लिन, इलेक्शन ड्यूटी, सेंसस काउंटिंग, प्रदर्शनी या स्कूल के बाद प्रति सप्ताह 2to 5 घंटे… …… अर्थात् पठनीय के अलावा बहुत सारे अन्य कार्य || नई तकनीक शिक्षक का विकल्प नहीं हो सकता है।
   औद्योगिक क्रांति के कारण नए भारतीय समाज का निर्माण हम देख रहे हैं, जिसमें कई शाश्वत मूल्यों का अवगतन हो गया है। समृद्धि की प्रधानता, असहयोग की भावना और साध्य साधनों की तुलना में महत्वपूर्ण हो गए हैं। भौतिक सम्पन्नता तो आई, लेकिन नैतिक मूल्यों के पतन की कीमत पर। मेरा मानना ​​है कि शिक्षा ही मानवीय और नैतिक मूल्यों की निर्भरता का सबसे सशक्त साधन है। वर्तमान में हमारी शिक्षा भटक गई है। विगत दो दशकों में तो इसे पटक-पटक कर इतना झाड़ा-पोचा गया है कि हम अंग्रेजी प्रयत्नों के बावजूद भी शिक्षा के मूल मर्म से दूर हो गए हैं। हम कभी शिक्षा को डिग्री से जोड़ते हैं, कभी कार्य के अनुभव से ……… पर कभी यह सोचा कि हमारी शिक्षा का दर्शन क्या होना चाहिए।
   अगर वर्तमान में शिक्षा की प्रासंगिकता की बात करें तो हम जिस शिक्षा व्यवस्था को ढो रहे हैं, उसमें व्यावसायिकता इतनी हावी होती जा रही है कि लैंगिक भेदभाव, महिला हिंसा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे मुद्दे सामान्य लगते हैं। स्कूलों में पढ़ाई का बोझ किसी को इस ओर सोचने के लिए समय नहीं देता। पढ़ाई, परीक्षा अंकों की दौड़ में चाहे-अनचाहे व्यक्तित्व विकास की बहुत सी समस्याएँ टूटज़ी रहें जाती हैं, जो कि भविष्य में निराशा, हताशा और कुन्हा के रूप में अपराधी प्रवृत्ति अधिकारियों को जन्म देती हैं। वर्तमान शिक्षा का अर्थ है कि कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर नौकरी प्राप्त करें …… और यदि शिक्षा प्राप्त करके भी नौकरी न मिले तो ………। इस डर से दूर यह शिक्षा बच्चे को यह स्वतन्त्रता देती है कि वह रमन, टैगोर, कलाम, कल्पना, सुनी हुई कलाकार बन जाए? अगर वर्तमान समय की तराजू में शिक्षा को सहनें तो एक ही तथ्य परिलक्षित होता है कि हमारे पालक और शिक्षक ही चाहते हैं कि हम किसी की तरह बनें… .. ये सच है तो हम मेधावी कैसे बनेंगे? यह एक गंभीर समस्या है, जो हमारी शिक्षा व्यवस्था को अर्थहीन बनाता है।
   परिवर्तन शाश्वत है- तो देश, काल व परिस्थिति के अनुसार शिक्षा भी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। शिक्षा समाज, परिवर्तन का प्रेरक बल है, वही शिक्षक परिव्राजक है। आने वाले समय में शिक्षा की परिभाषा में व्यापक परिवर्तन करने होंगे, जिससे शिक्षा उपयोगी और लक्ष्य आधारित हो और वर्तमान शिक्षण प्रणाली के दोष दूर हों अर्थात् अब रटने वाले तोते को शिक्षा, उद्योग, और अन्य स्थलों पर व्यस्त रखना सीखना होगा।
एक बात और प्रासंगिक है कि अगर हम विद्या के मंदिर का कायाकल्प होने पर पुजारी नहीं संशोधित तो यह परिवर्तन अर्थहीन और प्रभावहीन होगा, अर्थात् शिक्षक को भी म् सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ’को अंगीकृत करना होगा, क्योंकि एक इंजीनियर की गलती किसी भी नींव में दब सकती है। है, किसी डॉक्टर की गलती किसी की कब्र के नीचे दब सकती है, लेकिन एक शिक्षक की गलती सम्पूर्ण राष्ट्र में झलकती है। शिक्षा के रसातित होते स्तर को रोकने के लिए एक प्रयास यह भी संभव है कि कृपांकों की समाप्ति, अंक में वृद्धि करने पर रोक, विभिन्न विषयों की मौखिक परीक्षाओं की समाप्ति और परिणामों के प्रतिशत की पाबंदी से मुक्त कर दें तो सुधार संभव है।
   वर्तमान में ज्ञान के विस्फोट में वृद्धि तीव्र गति से हुई है, लेकिन इस विस्फोट की चुनौती को स्वीकार करने के लिए हमारी शिक्षा संस्थाओं के पास साधन और संसाधनों का नितांत अभाव है। प्राथमिक शिक्षा हमारी शिक्षा रूपी भव्य भवन की आधारशिला है, किंतु यह आधार ही जियरिंग अवस्था में है। कमजोर, आर्थिक स्थिति, राजनीति का भय, अल्प शैक्षिक योग्यता आदि से त्रस्त शिक्षक, गिनती, पहाड़ियों, अक्षर ज्ञान प्रदान करने के लिए केवल शिक्षा उपलब्ध है। इस स्तर पर सुधार की अत्यधिक आवश्यकता है।
वर्तमान में देश में लगभग डेढ़ लाख स्कूलों और 12 लाख शिक्षकों की कमी है। निजी और सरकारी स्कूल में संसाधनों और सुविधाओं में जमीन-आसमान का अंतर और फिर भी हम समानता की बात करते हैं। छात्रों को समान शैक्षणिक उपलब्धता की बात बेमानी नहीं लगती है? वर्तमान में हमारे देश में शिक्षा के कथित मंदिर आनन-फानन में कुकरमुत्ते की तरह उगे हैं, जिसका उद्देश्य बच्चों का भविष्य निर्माण करना नहीं, बल्कि अपनी तिजोरी भरना है, लेकिन हमारी सड़ी-गली राजनैतिक व्यवस्था ने बिना शिक्षक और भवन के पेड़ के नीचे। केवल स्कूल खुलवाए। यहां जवाबदेही तय होना चाहिए कि जिसने ऐसी संस्था को मान्यता प्रदान की है, उस बोर्ड पर कार्यवाही होनी चाहिए।
   अगर उच्च शिक्षा की समीक्षा करें तो देश के लिए बड़ी ही त्रासद स्थिति की विश्व के शीर्ष सौ विश्वविद्यालयों की सूची में भारत कहीं नहीं है, अर्थात् विश्व को भारत की उच्च शिक्षा ने प्रभावित नहीं किया है। आजादी की 66 वीं वर्षगाँठ मनाते हुए हम भले ही इस पर गौरवान्वित हों कि देश में साक्षरता दर बढ़ी है, पर क्या हम शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा पाए। अगर आंकड़ों की बात करें तो तो देश में लगभग सात सौ विश्वविद्यालय और लगभग 35 हजार पांच सौ विश्वविद्यालय हैं, जबकि सन् 2030 तक महाविद्यालय जाने वाले छात्रों की संख्या भी लगभग 14 करोड़ से अधिक हो जाएगी, तो इस क्षेत्र में ऐसी दूरगामी योजनाएँ हैं कि हम गुणवत्ता का स्तर बनाते हुए संसाधन जुटा सकते हैं। 

  विगत दशक में निजी व्यावसायिक और डिग्री

                                                          महाविद्यालयों को जैसे ही विश्वविद्यालय का दर्जा मिला, उन्होंने अपनी क्षमताओं से कई गुणा छात्र ले के लिए, वो भी सुविधाओं में बिना किसी सुधार किए, जिसका परिणाम है कि ज्यादातर छात्र कैंटीन में समय बिताते दिखते हैं। क्यों? क्योंकि कक्षाओं में उन्हें सिर्फ उसताबी ज्ञान ही मिल रहा है, जबकि आज व्यवहारिक ज्ञान की आवश्यकता अधिक महसूस की जा रही है। देश में उच्च शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों की संख्या में भी कमी आई है, जबकि चीन और जापान में इनकी संख्या बढ़ी है।
   यू.जी.सी. भी शोध कार्य भी विश्व शिक्षा समुदाय में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए। आजादी के बाद देश में हम ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं कर पाए, जो कि शोध और अनुसंधान को आगे बढ़ाए। पिछले वित्त बजट में विज्ञान और तकनीक के अनुसंधान कार्य के लिए 200 करोड़ रुपए स्वीकृत हुए, जो कि ऊँट के मुंह में जीरा समान है। भारत के किसी भी नागरिक को 84 वर्ष पहले विज्ञान के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नोबल पुरस्कार मिला था, अर्थात् 84 वर्षों में हमारे वैज्ञानिकों ने ऐसा कुछ अनोखा ईजाद नहीं किया, जो कि विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करता है। देश में वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान की दशा शोचनीय है और हमारे विश्वविद्यालय एम.फिल। और डी डी हैं सिर्फ डिग्री बांट रहे हैं। कई विश्वविद्यालयों में तो पैसे के बारे में डिग्री देने का खुला खेल चल रहा है। रही-सही कसर स्वाविट पोषित कोर्स के माध्यम से डिग्री बांट कर पूरी हो गई है। महाविद्यालय में विकास समिति के नाम पर शोषण और लूट का खेल जारी है। एम.फिल। एक कोर्सेडेन के लिए एक फैक्ट्री को 4 महीने के लिए अधिकतम 8950 / - रुपए महीने के वेतन पर रखा जाता है और 6 महीने में एम.फिल। की डिग्री अवार्ड कर दी जाती है। ये बात मैं दावा के साथ कह रही हूँ हूँ।
   हम शिक्षा प्रणाली में sy की समीक्षा करें तो प्राथमिक स्तर पर ही कई आपत्तिजनक तथ्य है। जैसे जेंडर संवेदनशीलता को अनदेखा किया गया है। बचपन से ही देखती आई हूँ। दूसरी-तीसरी कक्षा की किताब में नारी विचारों को हमेशा घर-रसोई और गुड्डे-गुड्डियों से खेलता विवरण किया जाता है, जबकि पुरुष पात्र को स्कूल जाना, पेपर पढ़ते, नेतृत्व करना दिखाया जाता है। वाक्य रचना में भी यही अंतर है- सीता झाड़ू लगाती है, राम स्कूल जाती है - क्यों? ये वाक्य हम बदल नहीं सकते। महिला चरित्र को आत्मनिर्भर क्यों नहीं दिखा सकती। छात्राओं के साथ हम आत्मरक्षा, जैंडर संवेदनशीलता, हिंसात्मक व्यवहार मानव स्वास्थ्य और कानूनों की जानकारी सांझा ही नहीं कर रहे हैं। यौन शिक्षा को लेकर भी एक अघोषित सा विवाद चल रहा है। मेरा यह मानना ​​है कि यह पाठ्यक्रम का हिस्सा न हों पर शिक्षा का अंग होना आवश्यक है।
   हम मानव इतिहास के लक्षण की विश्लेषण करें तो आश्चर्य होता है कि जो पाठ हमने आज से 30-35 साल पहले पढ़े थे, वही पाठ आज भी हमारे बच्चे उसी ढर्रे के साथ पढ़ रहे हैं। ये पाठयेन का उद्देश्य क्या है- क्या आपको नहीं लगता कि इतिहास विषय का पाठ्यक्रम ऐसा हो, जिससे बच्चे, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक नीतियों का मूल्यांकन कर सकते हैं, जिसका इतिहास में जो कुछ घटनाएँ हुईं, उसका इतिहास अध्ययन वर्तमान संदर्भों और आवश्यकता के अनुसार। मूल्य से होना चाहिए। हम व्यावसायिक मार्गदर्शन और कैरियर काउंसलिंग को कॉलेज का हिस्सा मानते हैं, क्यों नहीं हम स्कूल में ही सैकेण्डरी एजुकेशन का हिस्सा बनाते हैं?
   वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप जब तक sy में मूलभूत बुनियादी परिवर्तन और परिवर्तन नहीं किए जाएंगे, तब तक तो यह तस्वीर बदलने वाली नहीं है। क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति से व्यक्तित्व विकास और देश, समाज की उन्नति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? आज हमें ऐसी sy की जरूरत है, जो बच्चों में मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक और भावात्मक संवेदनशीलता और समानता को विकसित करे। एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था की जरूरत है, जो युवाओं में नागरिक जिम्मेदारी, राष्ट्रप्रेम, आलोचनात्मक और निर्णय क्षमताओं को उभरने और परिस्थिति के अनुसार समस्याओं से लड़ने की क्षमता प्रदान करती है। यहाँ यह भी आवश्यक है कि व्यवहारिक ज्ञान और नैतिकता के साथ बुनियादी प्रशिक्षण भी आवश्यक है, जो कि छात्रों में जीविकोपार्जन की क्षमता उत्पन्न कर सके।

 अगर देश के विकास के पैटर्नेक्षित में बात करें तो

                                                                     तीन घंटे की परीक्षा प्रणाली से किताबी ज्ञान का बेहतरीन परिचय देने वाले युवाओं के साथ हमें युवा, उद्यमी, वैज्ञानिक, अविष्कारक और स्वावलम्बन के आधार पर रोजगार उत्पन्न करने वाली युवा शक्ति की आवश्यकता है, तो अब मुझे लगता है समय आ गया है - हम 'अ' से 'अनार' की बजाय 'अ' से 'अधिकार' और 'आजादी' और 'ज' से 'जहाज' की जगह 'जिज्ञासा' और 'जिम्मेदारी' सिखाते हैं।
   अंत में यह कहुगा कि ये हमारा दुर्भाग्य ही है कि हम आज भी मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के औपनिवेशिक ढांचे की गुलाम बन कर ही जा रहे हैं। देश में एक बड़ी खराब प्रथा और चल पड़ी है कि जो भी दल सत्ता में आता है, वह अपने हिसाब से पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण करवाता है। यह काम पहले मुगलों ने किया, फिर अंग्रेजों ने कहा, फिर काले अंग्रेजों ने बखूबी किया। शिक्षा के माध्यम से अपनी राजनैतिक विचारधारा को आरोपित कर उन्हें भविष्य के वोट बैंक के रूप में देखता है। यह आजाद भारत की कड़वी सच्चाई है।

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